बुधवार, 17 सितंबर 2008
दिलवाली दिल्ली
दिलवालों की दिल्ली, १३ सितम्बर के बम धमाकों के बाद दूसरे और तीसरे दिन मॉल मैं घूमते परिवार की फोटो के साथ अख़बारों की ये सुर्खी कुछ अटपटी लगी !ये दिल्ली का बड़ा दिल नहीं उसकी असम्वेदनसीलता अधिक रही! जाकी फटी न बिबायीं वो का जाने पीर परायी! मॉल में घूमता परिवार इस कहावत को अधिक दिखा रहा था! परिवार में गमी हो और हमारे चेहरे पर मुस्कान, पल-पल कपडे बदलने वाले गृहमंत्री के साथ दिल्लीवालों ने भी शर्मिंदा कर दिया! क्या दिल्लीवालों (हमारा) का यही रुख शिवराज पाटिल, पासवान, mulayam और लालू (सिम्मी की तरफदारी करने वाले neta) को होंसला नहीं देता! सोचो दिलवालो (दिल्लीवालो) ..............
रविवार, 7 सितंबर 2008
राजनीति के राजकुमार
बाह के राजकुमार की रैली निकली.... आजादी का ६१वा साल और राजकुमार , देहात से आई इस छोटी सी ख़बर पर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया रही ख़बर काफी कुछ कह रही थी बता रही थी कि हमारी सोच आज भी कितनी गुलाम है स्वीकारते हुए संकोच हो रहा है लेकिन इसने मीडिया की राजशाही की चरणवंदना की प्रवृति को भी सबके सामने रखा कई सवाल भी उठाये पुछा कि लोकतंत्र मैं आम आदमी के हथियार का दावा करने वाला मीडिया किस हद तक इस अलंकरण के योग्य है हालाँकि ये कोई अपवाद ख़बर नहीं थी
गुरुवार, 14 अगस्त 2008
पर उपदेश कुशल बहुतेरे....
महोदय, कहावत में तकनीकी खामियां हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे नहीं होते, कम से कम प्राय: तो नहीं। भईया! ऐसे जीवट वाले चाहे अधिक हो गए हों लेकिन काम आज भी ये दुरूह, कठिनाइयों भरा और खर्चीला है। आजकल उपदेश सुनने वाले मिलते ही कहां हैं। ऐसे विलुप्त प्राय: प्राणी को ढूंढना, क्या आसान है। मशक्कत से किया गया ये कार्य यदि पूरा भी हो जाए तो समय और धन का तोड़ा। आप कहेंगे, समय तो समझ में आया-धन का तोड़ा क्योंकर। तो भईया! क्या कोई बिना चाय-चू केउपदेश सुनेगा। उपदेश सुनाने के लिए भी पेट तर माल से तर होना ही चाहिए। कहा भी गया है, भूखे पेट भजन न होये गोपाला। अब, उपदेश और भजन (कम से कम भावना में) एक ही हैं। उपदेश सुनने वाला भी है, सुनाने वाला भी। व्यवधान फिर भी आ सकता है। उपदेश सुनाने वाला की अकर्मण्यता से नहीं, अपने भगवान जी हैं न (वही, जिनकी मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता ) पता नहीं कब अड़ंगा डाल दें। अंदर की बात है पर तुम सुन लो: वो समझते हैं कि उपदेश सुनाने पर उनका ही एकाधिकार है, लेकिन हम भरे पेट भी खाना चुराने वाले मानने वाले थोडे ही हैं। किसी तरह से उपदेश सुनने वाले, खर्चे के लिए धन और तर माल, तर पेट की असामान्य परिस्थितियों का बिना व्यवधान केसमय से संयोग हुआ भी तो इसके भावनात्मक पहलू भी कम खतरनाक नहीं हैं। उपदेश सुनाने वाला बेचारा बड़ा भावुक प्राणी होता है, दो बोल बोले नहीं कि खुन का सा रिश्ता जुड़ गया। अब अपने छोटे भाई, भतीजे, भांजे......... को कुछ कहा जाय और वो उस पर अमल नहीं करे तो कितना दुख होता है। और आजकल तो सभी निरे अहसानफरामोश हैं। चाय-चू के साथ एक कान से सुन लेंगे और दूसरे कान से निकाल देंगे। अब इतनी मेहनत और खर्चे केे बाद भी ऐसा रेस्पोंस मिले तो कितना धक्का लगता है। तो भईये! कहावत बनाते समय कंटेंट पर ध्यान नहीं दिया गया है और मैं इससे असहमति जताता हूं।
मैं उपदेश
समय के साथ दुर्गति देखनी है तो मेरी देखिये! मैं उपदेश हूँ. एक शब्द.
आप कहेंगे शब्द की क्या दुर्गति. मैं शब्द मात्र ही नहीं हूँ. एक भावना का परिचायक हूँ. जन कल्याण की भावना. यही मेरी दुर्गति का कारण है.
आप कहेंगे शब्द की क्या दुर्गति. मैं शब्द मात्र ही नहीं हूँ. एक भावना का परिचायक हूँ. जन कल्याण की भावना. यही मेरी दुर्गति का कारण है.
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