गुरुवार, 14 अगस्त 2008
पर उपदेश कुशल बहुतेरे....
महोदय, कहावत में तकनीकी खामियां हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे नहीं होते, कम से कम प्राय: तो नहीं। भईया! ऐसे जीवट वाले चाहे अधिक हो गए हों लेकिन काम आज भी ये दुरूह, कठिनाइयों भरा और खर्चीला है। आजकल उपदेश सुनने वाले मिलते ही कहां हैं। ऐसे विलुप्त प्राय: प्राणी को ढूंढना, क्या आसान है। मशक्कत से किया गया ये कार्य यदि पूरा भी हो जाए तो समय और धन का तोड़ा। आप कहेंगे, समय तो समझ में आया-धन का तोड़ा क्योंकर। तो भईया! क्या कोई बिना चाय-चू केउपदेश सुनेगा। उपदेश सुनाने के लिए भी पेट तर माल से तर होना ही चाहिए। कहा भी गया है, भूखे पेट भजन न होये गोपाला। अब, उपदेश और भजन (कम से कम भावना में) एक ही हैं। उपदेश सुनने वाला भी है, सुनाने वाला भी। व्यवधान फिर भी आ सकता है। उपदेश सुनाने वाला की अकर्मण्यता से नहीं, अपने भगवान जी हैं न (वही, जिनकी मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता ) पता नहीं कब अड़ंगा डाल दें। अंदर की बात है पर तुम सुन लो: वो समझते हैं कि उपदेश सुनाने पर उनका ही एकाधिकार है, लेकिन हम भरे पेट भी खाना चुराने वाले मानने वाले थोडे ही हैं। किसी तरह से उपदेश सुनने वाले, खर्चे के लिए धन और तर माल, तर पेट की असामान्य परिस्थितियों का बिना व्यवधान केसमय से संयोग हुआ भी तो इसके भावनात्मक पहलू भी कम खतरनाक नहीं हैं। उपदेश सुनाने वाला बेचारा बड़ा भावुक प्राणी होता है, दो बोल बोले नहीं कि खुन का सा रिश्ता जुड़ गया। अब अपने छोटे भाई, भतीजे, भांजे......... को कुछ कहा जाय और वो उस पर अमल नहीं करे तो कितना दुख होता है। और आजकल तो सभी निरे अहसानफरामोश हैं। चाय-चू के साथ एक कान से सुन लेंगे और दूसरे कान से निकाल देंगे। अब इतनी मेहनत और खर्चे केे बाद भी ऐसा रेस्पोंस मिले तो कितना धक्का लगता है। तो भईये! कहावत बनाते समय कंटेंट पर ध्यान नहीं दिया गया है और मैं इससे असहमति जताता हूं।
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