रविवार, 17 अक्टूबर 2010

मैं मुस्करा रहा था

कुछ समय पहले की बात है। बेवाच, स्टार टीवी पर आधी रात के करीब आता। पुरुषों को जगाता। छिपते-छिपाते कम आवाज में कम कपड़ों में युवतियां देखी जातीं। क्या दिन थे।अब बेवाच, हिंदी में डब होकर प्रसारित हो रहा है। प्रसारण के लिए स्लाट प्राइम टाइम (रात आठ बजे से ११ बजे) है। लेकिन कोई देखता नहीं। क्यों, इतना तो चाहे जहां दिख जाता है। कहने का मतलब ये कि नग्नता की स्वीकार्यता बढ़ी है।दिमाग पर बचपन (७-८ वर्ष) का एक प्रसंग अमिट है। बाह तहसील के अशोक नगर मोहल्ले में हमारा घर है। पड़ोस में मिश्रा जी के यहां उनके बड़े या मंझले (अधिक ध्यान नहीं) बेटे की शादी थी। शादी की काफी धूमधाम थी। कार में कुछ रिश्तेदार भी आए थे। तब कार देहात क्षेत्र में एक बड़ी चीज थी तो आकर्षण में बंधे मोहल्ले के बच्चे उनकी चारदीवारी के पास ही घूम रहे थे।एक बच्चे को दिखा कि चारदीवारी के पास दो रुपए का नोट पड़ा है। बच्चों की भीड़ लग गई। बड़े शादी की तैयारियों में व्यस्त थे तो कौतुहल केवल छोटी जमात तक सीमित रहा। काफी देर तक मैं और मोहल्ले के बच्चे खड़े रहे। किसी की हिम्मत उस दो रुपए के नोट को उठाने की नहीं हो रही थी। तब किसी का गिरा हुआ वो नोट, बुराई का प्रतीक सा था। कई सवाल उमड़ घुमड़ रहे थे। अरे! मैंने उठाया तो सब बच्चे क्या कहेंगे। घर में पता लगा तो। हम घेरा बनाकर खड़े रहे। तब मोहल्ले में बुरे लड़के के रूप में प्रसिद्ध एक बालक आया और उसने वो नोट उठा लिया और चलता बना। अब मुझे २४ साल के बाद कहीं एक रुपये का नोट भी दिख जाए तो मैं झट उठा लूंगा। मेरे तब केउस दो रुपए के नोट को उठाने से हिचकने वाले साथी भी ऐसा ही करेंगे। बुराई की स्वीकार्यता बढ़ी है। किसी के पैसे का उपभोग करना तब बुराई था अब स्वीकार्य है।बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व पर ये बातें अचानक दिमाग में नहीं आईं। एक साथी अपने गुरु के (अव) गुणों का बखान कर रहे थे। बड़ी तसल्ली से, बिना लाग-लपेट, बिना संकोच, किला फतह करने की तरह। गुरु जी का चातुर्य ये कि वो कटोरा लेकर आए, अब करोड़ों में खेल रहे हैं। वो उनके पासंग भी नहीं। वो बिना ज्ञान के परम ज्ञानी। खड़े-खड़े जिस चाहें बेच आएं। ऐसा कई के साथ कर चुके हैं...........।मन में बस ये ख्याल आया, कलयुग चरम पर है।वैसे बुराई की स्वीकार्यता तो बढ़ी है, उसका पौरुष भी बढ़ा है। अब वो अच्छाई को सरेआम बेइज्जत भी कर देती है। क्या हो तुम, निरे बौड़म (सहृदय)। उसने दो आंसू क्या बहाए, ब्याज ही छोड़ दिया। पहले के कुछ सद्ïगुण अब अवगुण और अवगुण अब सद्ïगुण हैं। गौर फरमाइए.......तब सच्चे, अब बेवकूफ। तब सहृदय अब बुद्धू। तब कर्तव्यपरायण अब अव्यावहारिक। तब कुटिल अब व्यावहारिक.........। ऐसी निराशावादी सोच के बीच किसी का कहा एक वाक्य ध्यान आ गया। कलयुग की कालिमा फैलने पर चर्चा के दौरान ये वाक्य कहा गया था। जब तक किसी बच्चे को देखकर आपके मन में वात्सल्य उमड़े और आप बरबस मुस्करा दें, समझिए अच्छाई जिंदा है। आज मैं अपनी एक पांच दिन पहले ही पैदा हुई भतीजी से मिला। वो सो रही थी और मैं मुस्करा रहा था।दशहरे की शुभकामनाएं!

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